Saturday, September 16, 2017

मंटो के नाम , मंटो की ज़ुबान.


बम्बई की गलियों की किस्सा फ़रोशी
अमृतसर से शुरू हुई 
लाहौर में खत्म न हो सकी,
कलम चलती रही 
बेशरम हरामजादी,

शराब के दौर, चाय की चुस्कियां
सिग्रेट के कश,
कुछ आज भी 
नाक़ाबिल ए बर्दाश्त हैं 
इस आदमी के गश,

आवारागर्दी पसंद है इसे 
सड़कछापों का नुमाइन्दा है, 
बलवों की लाशों को इसने 
कागज़ पे उठाया है ,

खाकिस्तरी आसमां इसका 
अब ज़र्द हो गया है 
 कितने अफ़साने उगते होंगे 
जहां मंटो गया है ...
                                                            - मायाराम




किस्सा फ़रोशी - कहानी बेचना 
गश - घाव 
बलवे - दंगे - फ़साद
खाकिस्तरी - मिटटी के रंग का 
ज़र्द - पीला 

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